*मनुष्य का दृष्टिकोण कैसे बदलता है इस कहानी में एक बच्चे की मां एक पति की पत्नी खत्म हो जाने पर कैसे बदलता है*

ट्रेन में दो बच्चे यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे, कभी आपस में झगड़ जाते तो कभी किसी सीट के उपर कूदते।
पास ही बैठा पिता किन्हीं विचारों में खोया था। बीच-बीच में जब बच्चे उसकी ओर देखते तो वह एक स्नेहिल मुस्कान बच्चों पर डालता और फिर बच्चे उसी प्रकार अपनी शरारतों में व्यस्त हो जाते और पिता फिर उन्हें निहारने लगता।

ट्रेन के सहयात्री बच्चों की चंचलता से परेशान हो गए थे और पिता के रवैये से नाराज़। चूँकि रात्रि का समय था अतः सभी आराम करना चाहते थे। बच्चों की भागदौड़ को देखते हुए एक यात्री से रहा न गया और लगभग झल्लाते हुए बच्चों के पिता से बोल उठा-“कैसे पिता हैं आप ? बच्चे इतनी शैतानियां कर रहे हैं और आप उन्हें रोकते- टोकते नहीं, बल्कि मुस्कुराकर प्रोत्साहन दे रहे हैं। क्या आपका दायित्त्व नहीं कि आप इन्हें समझाएं???

उस सज्जन की शिकायत से अन्य यात्रियों ने राहत की साँस ली कि अब यह व्यक्ति लज्जित होगा और बच्चों को रोकेगा। परन्तु उस पिता ने कुछ क्षण रुक कर कहा कि-“कैसे समझाऊं बस यही सोच रहा हूं भाईसाहब”।

यात्री बोला-“मैं कुछ समझ नहीं”

व्यक्ति बोला-“मेरी पत्नी अपने मायके गई थी वहाँ एक दुर्घटना के चलते कल उसकी मौत हो गई। मैं बच्चों को उसके अंतिम दर्शनों के लिए ले जा रहा हूँ।और इसी उलझन में हूँ कि कैसे समझाऊं इन्हें कि अब ये अपनी मां को कभी देख नहीं पाएंगे।”

उसकी यह बात सुनकर जैसे सभी लोगों को साँप सूंघ गया। बोलना तो दूर सोचने तक का सामर्थ्य जाता रहा सभी का।
बच्चे यथावत शैतानियां कर रहे थे। अभी भी वे कंपार्टमेंट में दौड़ लगा रहे थे। वह व्यक्ति फिर मौन हो गया। वातावरण में कोई परिवर्तन न हुआ पर वे बच्चे अब उन यात्रियों को शैतान, अशिष्ट नहीं लग रहे थे बल्कि ऐसे नन्हें कोमल पुष्प लग रहे थे जिन पर सभी अपनी ममता उड़ेलना चाह रहे थे।

उनका पिता अब उन लोगों को लापरवाह इंसान नहीं वरन अपने जीवन साथी के विछोह से दुखी दो बच्चों का अकेला पिता और माता भी दिखाई दे रहा था।

कहने को तो यह एक कहानी है सत्य या असत्य। पर एक मूल बात यह अनुभूत हुई कि… आखिर क्षण भर में ही इतना परिवर्तन कैसे सभी के व्यवहार में आ गया।
क्योंकि उनकी दृष्टि में परिवर्तन आ चुका था।

हम सभी इसलिए उलझनों में हैं, क्यों कि हमने अपनी धारणाओं रूपी उलझनों का संसार अपने इर्द- गिर्द स्वयं रच लिया है।
मैं यह नहीं कहता कि किसी को परेशानी या तकलीफ नहीं है… पर क्या निराशा या नकारात्मक विचारों से हम उन परिस्थितियों को बदल सकते हैं?

नहीं ना …

आवश्यकता है एक आशा, एक उत्साह से भरी सकारात्मक सोच की, फिर परिवर्तन तत्क्षण आपके भीतर आपको अनुभव होगा।
उस लहर में हताशा की मरुभूमि भी नंदन वन की भांति सुरभित हो उठेगी।

दोस्तों,


बदला जाय दृष्टिकोण तो इंसान बदल सकता है …
दृष्टिकोण के परिवर्तन से सारा जहां बदल सकता है …🙏🏻🙏🏻

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