बड़े लड़ाईया महोबा वाले, खनक खनक बाजे तलवार

रण के डंका बाजन लागे, सज गए अहिरन के सरदार”।
महावीर यदुवंशी योद्धा आल्हा जी की जयंती पर कोटि कोटि नमन…
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मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सामाजिक न्याय के वीर आल्हा का जन्म 25 मई 1140 ई. को दसरापुर के जागीरदार तथा राजा परमाल के वफ़ादार दस्सराज के घर हुआ था.
वे बनाफर यादव वंश के थे, जो कि चन्द्रवंशी यादव वंश की शाखा है।

मध्य-काल में आल्हा-ऊदल की गाथा शौर्य का प्रतीक दर्शाती है।
आल्हा उम्र बहुत कम थी, जब उनके पिता रणभूमि में दुश्मनों के हाथों मारे गये. पिता की मृत्यु के बाद राजा परमाल ने उनका पालन पोषण किया. माना जाता है कि वह राजा परमाल की पत्नी मलिन्हा के बहुत प्रिय थे. वह उन्हें अपनी संतान की तरह लाड़ करती थीं.
आल्हा के जन्म की खबर पाकर महाराज परमाल व महारानी मल्हना बधाई देने गए।
राजा ने पूरे राज्य में महोत्सव मनाने का आदेश दिया। तभी से महोबा का नाम महोत्सव नगर विख्यात हो गया।
मां देवल आल्हा को अस्त्र शस्त्र, तीर तलवार, भाला, घुड़सवारी और आपस में लड़ाकर मल्ल युद्ध की शिक्षा देती थी।
उनकी वीरता का सभी ने लोहा माना. इसी के चलते जल्द ही राजा परमाल ने उन्हें अपनी सेना का सेनापति घोषित कर दिया.
‘आल्हा’ ने अपने पद की हमेशा गरिमा बनाये रखी. अपने सफर में वह राजा परमाल के उपकारों को कभी नहीं भूले.
यही नहीं उन्होंंने राजा परमाल के लिए खुद को मरते दम तक समर्पित भी कर दिया था.
राजा परमाल ‘आल्हा’ को अपने पुत्र के सामान मानते थे. राज्य के प्रति ‘आल्हा’ की निष्ठा पर उन्हें पूरा विश्वास था

. रानी मलिन्हा भी उनसे स्नेह रखती थी. बस यही बात रानी मलिन्हा के भाई माहिल को खटकती थी.

वह ‘आल्हा’ को नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता था. कई बार उसने इसके लिए षडयंत्र भी रचे… किन्तु किसी न किसी वजह से वह फेल हो जाता था. इसी क्रम में उसने ‘आल्हा’ को राज्य से बाहर करने का पुख्ता प्लान तैयार किया. उसने राजा परमाल को भड़काते हुए कहा कि वह ‘आल्हा’ से अपना प्रिय घोड़ा भेंट करने के लिए कहें.

अगर ‘आल्हा’ ऐसा नहीं करता तो इसका मतलब वह आपके राज्य के लिए ईमानदार नहीं है.
शुरुआती आनाकानी के बाद राजा परमाल इसके लिए सहमत हो गये. उन्होंने ‘आल्हा’ को बुलाया और अपनी बात रखी. इत्तेफाक से ‘आल्हा’ ने अपना घोड़ा माहिल को देने से इंकार कर दिया. उन्होंने कहा, ‘एक सच्चा क्षत्रिय भले ही किसी के लिए अपने प्राण हंसते हुए दे दे, मगर अपने अस्त्र-शस्त्र और घोड़ा किसी को नहीं दे सकता’.

‘आल्हा’ का इंकार सुनते ही राजा को माहिल की बात सही लगने लगी. उन्होंंने क्रोध में आकर ‘आल्हा’ से राज्य छोड़ कर चले जाने को कहा. ‘आल्हा’ ने भी अपने राजा के आदेश का सम्मान रखा और महोबा से कन्नौज चले गये.
आल्हा’ के महोबा से जाते ही पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर हमले की घोषणा कर दी. हमले की सूचना मिलते ही रानी मलिन्हा ने राजा परमाल से ‘आल्हा’ को वापिस बुलाने की विनती की. पहले तो राजा परमाल राजी नहीं हुए, किन्तु समय के साथ उन्हें ‘आल्हा’ को बुलाना ही पड़ा.
राजा की सूचना मिलते ही ‘आल्हा’ जल्द ही पृथ्वीराज चौहान से लोहा लेने वापस महोबा पहुंच गये.

महोबा पहुंचते ही ‘आल्हा’ ने मोर्चा संभाल लिया. उनके साथ उनके भाई उदल भी थे.

कहते हैं कि उदल बिल्कुल आल्हा की परछाई थे. वह भी इतने वीर थे कि सामने से उसे मार पाना लगभग असम्भव था!
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुन्देलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था।
जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।

ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान व चौड़ा बक्सी द्वारा क्षल से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुये,

आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े, आल्हा की चंद्रहास खड्ग के एक ही वार से चौड़ा बक्सी का सिर घोड़ों की टापों के नीचे कुचलने लगा
आल्हा के सामने जो आया मारा गया,
1 घण्टे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुआ,

आल्हा के गुरु गोरखनाथ ने कहा ये तुम्हारे जैसे वीर के मारने योग्य नहीं है इसका अंत मातृभूमि से दूर विक्षिप्त दशा में होंगा, ये इसका उचित दंड होगा,
गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को यवन अकांता मुहम्मद गौरी के लिए जीवित छोड़ दिया और बुन्देलखण्ड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पन्थ स्वीकार कर लिया।

आल्हा चन्देल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाना जाता है) के एक महान सेनापति थे, जिन्होंने 1182 ई० में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी, जो आल्हा-खाण्डबॉल में अमर हो गये।
जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।
मुगल सम्राट के समय आल्हखण्ड ग्राम चौपाल पर युवक लय के साथ गाते – बजाते थे रणमत हो एकांत पा मुगल सैनिकों का मार देते थे।
सैनिकों की हत्या से दु:खी मुगल अकबर ने अपने नवरत्नो के संग मंत्रणा की, हल आया आल्ह-खण्ड काव्य का वीर रस
इसकी काट के लिए भक्ति काव्य की रचना की जाने लगी,

बुंदेल खण्ड काव्य के स्थान पर अवधी में सामायिक रामचरित्र मानस ग्रंथ समाज में आया जो अखण्ड रामायण गायन के रूप में सुनते सुनाते हैं

जन्म दिवस 25 मई 1140 ई. नमन वंदन पुष्पांजलि…
सादर नमन…..🙏🏻

महान है बुंदेलखंड
जय बुंदेलखंड 🚩

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